आज खुल गयी वह खिड़कियाँ वापिस से
जैसे मानो बंद होने का
नाम ही न ले रही हो
बाहर की हवा का असर है
लगता है, काफी नुकसान हो चला है
इसे अब तक
अंदर का जोर भी आज बाहर
से मुकाबला कर नहीं पा रहा है
मैं सोचता हूं अकसर यह
मानो अगर यह खिड़कियाँ न
होती तो क्या होता
क्या हम अपने सपनों के
दरवाजों को खोल पाते?
या बंद ही रखते यह सोचकर
की चलो
अंधे ही सही मन की
खिड़कियों से जीना सीख लेते है
यह भी अच्छा मजाक कर जाती
है जिंदगी में
जब खुली होती है तब हम
इन्हें बंद कर लेते है
आज नीचे बहुत शोर हुआ,
देखा गली में बच्चे खेल रहे है
उनके मन की खिड़कियां खुली
है अभी, बंद तो मैंने कर रखे थे
अब तक,
आज सामने के घर में रौनक
नहीं है, शायद घर पे कोई न हो
या कोई है जिसने आँखें
खुली रखी है पर अँधेरे से प्यार कर बैठा अब तक,
ऊपर का आधा चाँद कितना
अकेला दिख रहा है आज
आज चमकते सितारों की चादर
मैंने बिछा रखी है मेरे मन में
मेरे दिल का आधा टुकड़ा आज
इसी खुली खिड़की से बाहर छलांग लगा चुका है
शायद ऊपर अपने चाँद से
मिलने जा बैठे , किसे पता
वह किसी के आँखों का
आँसू है तो किसी के चेहरे की ख़ुशी,
वह आज दूर जा चुका है,
है किसी को उसका इंतजार
कोई प्रेम राग गा रहा है,
तो कही है कोई बेताब
किसी ने अपने खत में उसे
लिखा है, ‘क्या कर पाओगे मुझसे इतना
प्यार?’
इन खिड़कियों में लगा यह
कांच आज धुंधला पड़ चुका है
शायद इन्हें कोई तोड़ दे,
पर चलो अच्छा है,
कभी न कभी तो यह वापिस
बंद हो ही जाएगी
एक कागज का टुकड़ा इसे ढक
लेगा और फिर
वापिस यह इंतजार में
खुलने को बेताब
किसी के उंगलियों की कद्र
और किसी के आंसुओं का सब्र करना सिखा देगी
और फिर किसी के चहचहाते
बोल इसे पसंद आने लगेंगे
और फिर किसी के नोकझोंक
से यह वापस खड़खड़ाएगी
यह जिन्दा रहेगी मेरी तरह,
मेरे अरमानों के समन्दर में गोते खाते रहेगी
मेरे सपनों के महल में एक
हिस्सा बनकर जुड़ी रहेगी
मेरे मन की आँखें बनेगी
यह दो खिड़कियां
अब खुली रहेगी इन्तेजार
में उसके…
…यह खिड़कियाँ
~प्रसेनजित सरकार~ 28.10.2020
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